बावरी सी मैं
बावरी सी चली मैं
उस पथ अनजान पर
ढूंढने भोलेपन को,
जो छिप गया है
मृगतृष्णा सा कहीं!
बावरी सी उड़ी मैं
उन्मुक्त गगन में,
खोजने दुर्लभ मनुष्यता को
विमुख है जो
हाय! मनुष्यों में!
बावरी सी तैरूं मैं
तलाशती बचपन
किसी सीप में कहीं,
शायद मोती सा बन
वह खिलखिला रही हो कहीं!
बावरी सी ढूंढूं मैं
वे दिन फ़ुरसत के
शहरों से दूर,
जहां कनक-लोचनों में
उमड़ता है
सपनों का घन!
उस पथ अनजान पर
ढूंढने भोलेपन को,
जो छिप गया है
मृगतृष्णा सा कहीं!
बावरी सी उड़ी मैं
उन्मुक्त गगन में,
खोजने दुर्लभ मनुष्यता को
विमुख है जो
हाय! मनुष्यों में!
बावरी सी तैरूं मैं
तलाशती बचपन
किसी सीप में कहीं,
शायद मोती सा बन
वह खिलखिला रही हो कहीं!
बावरी सी ढूंढूं मैं
वे दिन फ़ुरसत के
शहरों से दूर,
जहां कनक-लोचनों में
उमड़ता है
सपनों का घन!
poem is simply adorable !!may be the picture you have related with this poem could have little better, with endless end.
ReplyDeleteThanks for your appreciation and insight, Mahima!
ReplyDeleteThrough this picture, I wanted to relate my feelings. The way this monument looks beautiful, even after centuries, I wanted my feelings to resonate the same ancient tenor. Like the monument settles peacefully, yet the beauty is untamed; the same manner in which my longing flutters. :)
Bahut sundar vichar hai,God bless u Aditi,aise hi likhti raho
ReplyDeleteThank you Deepa ma'am! :) Need your blessings.
Delete👍👍👌
ReplyDeleteThank you Ms. Suchita! :D
DeleteAmazingly written, Adi! Probably your best😍
ReplyDeleteThank you so much, Mr./Ms. Unknown!! :D
DeleteMay I know who is this?
Well written. And that vocabulary..gives me the chills
ReplyDeleteThank you Aakash! :D
DeleteI hope to write such more that give my readers chills!